Saturday, December 10, 2011

सपने



सपने ... ये सपने भी कितने अजीब हैं
पुरे ना हो तो दिल टूट जाता है और पुरे हो जाये तो दिमाग चढ जाता है

अक्सर सपने देखना अच्छा नही माना जाता
लेकिन कौन है इस दुनिया में जो इनको देखना छोड़ता है

किसकी सपने बड़े होते है किसीके छोटे
या यूँ कहू सब अपनी औकात के हिसाब से ये सपने देखते है

लेकिन मेरी तो इतनी औकात थी ना कि तेरे साथ अपने सपने देख सकूँ ..
तेरे साथ पूरी जिंदगी तो नही लेकिन जब तक जियूं , रह सकूँ ..

सोचता हूँ तू एक ख्वाहिश थी , जो पूरी ना हो सकी ..
लेकिन तू तो एक सपना थी जब तक सोता रहा खुश था , नींद टूटी और तू मुझसे दूर ..

ना तो मेरा सपना टुटा ना पूरा हुआ , बस कहीं खो गया जिसे में जिन्दी भर तलाशता रहूँगा ....



Wednesday, November 2, 2011

झूठी मुस्कुराहट का भी,अपना असर है !!!

झूठी मुस्कुराहट का भी,अपना असर है,
लगता है हमको,कुछ हमारी भी कदर है, .

उसकी मुस्कान का, कुछ मतलब न लगा लेना,
वो परी है जहाज़ की, दिल न उनसे लगा लेना,
.
सही कहा है, परियाँ जन्नत में होती हैं,
जन्नत आसमान में होती है,
तो, आसमान के जहाज़ की ये सुंदरियाँ,
क्या परियों से कम होती हैं,
.
चेहरा मुस्कुराता है, दिल न लगाती हैं वो,
बस दूर से ही,इंसान से नज़रें चुराती हैं वो,
.

खुदा ने हुश्न भी तो, आसमान में लटका दिया है,
इस गरीब को इस हाल में, एक फटका दिया है,
.

इतनी ख़ूबसूरती, जमीं पर पैर न धरती है,
नज़रों से लगता है, किसी और पर मरती है,
.
कितना बेदर्द नज़ारा था, हुश्न होते हुए बेदारा था,
बस एक तकल्लुफ था, हुश्न भी किये किनारा था,
.
कितना सहती हैं रोज़, किनके-किनके आखों कि बेहहाई,
गर पूछ लो इनसे, पता चल जाए सबके नज़र कि सफाई,
.
शायद ही किसी ने, नज़रें न मिलाई हों इनसे,
नजर से दिल मिलाने की, आरज़ू की हो इनसे,
.
इन हसीनों को भी, काम करना पड़ता है,
दूसरों का कितना, ख्याल रखना पड़ता है,
.
गर वक्त होता, थोडा अभी पीछे,
दीदार न होता, इनका यूँ दरीचे,
होती ये किसी, सूबे की मल्लिका,
न देख पाते यूँ, इनका ये सलीका,
.

पहरे में रहतीं, हर वक्त किसी के,
न गौर से देख पाते, यूँ जी भर के,
खुदा ने हम पर, मेहरबानी की है,
इनको न यूँ, किसी की रानी की है,
.

सहमी सी जिन्दगी का, चेहरे से झलक आता है,
किसी और के सामने, चेहरा यूँ जो मुस्कुराता है,
.

दिल में यूँ कितनी, कसमसाहट होती है तब,
कोई अनजान हसीना, मुस्कुरा देती है जब,
.

कई तो आदि हैं इसके, न देखते हैं उनकी तरफ,
कैसे छिपाए, दिल का अरमाँ, देखें उनकी तरफ,

.
बड़ा अजीब लगता है, हलचल सी मच जाती है,
समझ न पड़ता, दिल में झंकार से बज जाती है,

.

इस तरह शायद, बहुत किस्से बने होंगे,
इन हसीनाओं के, बहुत दीवाने बने होंगे..

www.speakingtree.com से साभार ..

Thursday, October 27, 2011

अच्छा लगता है :)




भी कुछ पाना कभी कुछ खोना अच्छा लगता है,

खुली आँखों में भविष्य के सपने संजोना अच्छा लगता है,

जब कभी भी मेरे दिल पर कोई गहरी चोट लगती है,

मुझे आँखे बंद कर बारिश में रोना अच्छा लगता है.



रौशिनी के आँचल में बिखरे अंधेरो को मैं चुनता सा,

कभी सोता हूँ, कभी सपनो में जगा, कभी उठा, कभी बैठा सा,

चलायमान इस दुनिया में रौशनी बिखेरना मुझे अच्छा लगता है,

बहुत ढूढ़ता हूँ मैं अपने आप को इस भीड़ में,

ऐसे इस भीड़ में खुद को खो कर भीड़ बन जाना मुझे अच्छा लगता है.



बड़ा बेसब्र सा रहा हूँ मैं इतने दिनों तक,मंजिल पाने को,

अब तो उस तक दौड़ कर जाना मुझे अच्छा लगता है,

आश्वाशन के समंदर में जीवन की नैया किस तरह खेई जाती है,

अब तो इसका राज सबको बताना मुझे बड़ा अच्छा लगता है.



आंसुवो के तेरे गालो पर लुढ़कने से पहले ,

किसी गम को तेरे नजदीक आने से पहले ,

उसे अपने पर ही आजमाना मुझे अच्छा लगता है.



रास्तो पर बिखरे सपने समेटता हूँ,

मैं भी कभी हँसता हूँ कभी रोता हूँ,

कभी मुझे भी किसी से लड़ने किसी से हँसने,बोलने का मन होता है,

मैं अब उन्हें अपने मित्र कहना पसंद करता हूँ, जिन्हें सब बताना ,

अपनी विपदा मिटाना , हसना ,गुनगुनाना,

लड़ना झगड़ना मिलना बिछड़ना सुनना, सुनाना

बुलाना ,मिलने जाना ,कभी रूठना कभी मनाना

अपने आप को उन पर मिटाना अच्छा लगता है...

Thursday, September 22, 2011

" काँच की बरनी (जार) और दो कप चाय "


जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी - जल्दी करने की इच्छा होती है , सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम
पड़ते हैं , उस समय ये बोध कथा , " काँच की बरनी (जार) और दो कप चाय " हमें याद आती है ।

दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं .

उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने
की जगह नहीं बची ... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ .
आवाज आई ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे - छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये धीरे
- धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये , फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्या अब बरनी भर गई है , छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ
... कहा अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले - हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी नादानी पर
हँसे ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ? हाँ
.. अब तो पूरी भर गई है .. सभी ने एक स्वर में कहा .. सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली , चाय भी रेत के बीच स्थित
थोडी़ सी जगह में सोख ली गई .

प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया


इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो ..

टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान , परिवार , बच्चे , मित्र , स्वास्थ्य और शौक हैं , छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं , और
रेत का मतलब और भी छोटी - छोटी बेकार सी बातें , मनमुटाव , झगडे़ है .. अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते , रेत जरूर आ सकती थी ... ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है ... यदि तुम छोटी - छोटी बातों के पीछे
पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा ... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है । अपने बच्चों के साथ खेलो , बगीचे में पानी डालो , सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ , घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको , मेडिकल चेक - अप करवाओ ... टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो , वही महत्वपूर्ण है ... पहले तय करो कि क्या जरूरी है
... बाकी सब तो रेत है .
छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे .. अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि " चाय के दो कप " क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये , बोले .. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया .
इसका उत्तर यह है कि , जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे , लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये ।

Wednesday, September 7, 2011

तनहाईयाँ


बड़ा सा शहर, अनगिनत गलियाँ…
अंजाने रास्तें, यूँही बस चलियाँ…
ना था अंधेरा, ना थी परछाईयाँ…
एक था मैं, अनगिनत मेरी तनहाईयाँ…


बहुत से लोग, अनगिनत उनकी कहानियाँ…
दर्द-ए-दिल, पर मुस्कुराहट उनके ज़ुबानियाँ…
ना थी मंज़िल, ना थी परेशानियाँ…
एक था मैं, अनगिनत मेरी तनहाईयाँ…


वो गुज़रे पल, अनगिनत बदमाशियाँ…
बिछड़े यार, याद उनकी जो लाए हिचकियाँ…
ना रहा बचपाना, ना रही मासूमियाँ..
एक रहा मैं, अनगिनत मेरी सिसकियाँ…


मन में है, अनगिनत पहेलियाँ…
मैं हूँ कहाँ, कहाँ गयी वो मस्तियाँ…
ना था मैं दूर, ना थी नज़दीकियाँ…
एक था मैं, अनगिनत मेरी तनहाईयाँ…